ज़िन्दगी फिर तेरे वजूद पे यकीन आया
जो खो गया था कहीं मुझसे .. नहीं मिल पाया
मैं अकेला हो गया हूँ ... फिर से उन्ही राहों पे
जहाँ शुरआत हुई थी ... अंत भी वहीँ आया
जो ख्वाब सजाये थे कभी... बिखरे पड़े हैं
मेरे ही कन्धों पे सभी इलज़ाम लदे हैं
मेरी उड़ान पूरी नहीं हुई.... अब तक...
कि मेरे पाँव फिर धरातल पे .. आ लगे हैं
ठोकरें बहुत खायी हैं .. वैसे तो अक्सर ...
पर इस दफा गिरा हूँ ऐसा . कि उठ नहीं पाया ..
ज़िन्दगी फिर तेरे वज़ूद पे यकीन आया ....
कैसे मैं सम्हालूं .. इन फिसलते लम्हों को ?
कैसे सुधारूं ... मैं अपनी गलतियों को ..?
मेरी ज़िन्दगी कि ... कहानी अजब है !
मेरी गुस्ताखियों का .. बस इतना सबब है ..
कि दुश्मन नहीं था.. कभी कोई मेरा ...
मैंने अपने ही हाथों अपना ... आशियाना ..जलाया ....
ज़िन्दगी फिर तेरे वजूद पे यकीन आया ....
जिसकी आरज़ू में करवटें बदलता था रातों ...
छलनी हुआ है वो ... मेरे ही हाथों ...
सुनाऊं मैं कैसे? ये किस्सा नहीं था
जो घायल हुआ.. वो था मेरा मसीहा ...
अपनी लाश पे में ..बहुत रो चुका हूँ
बताऊँ मैं किसको ..कि क्या खो चुका हूँ ...
जिसको लहू से था सींचा .. वो घर मैंने ढहाया
ज़िन्दगी फिर तेरे वजूद पे यकीन आया ....
दुआओं का होता नहीं .. मुझ पर असर कोई
वरना महज़ हाथ उठा के ओरों ने क्या नहीं पाया
कुछ तो कहीं कम था... मेरी ही बंदगी में
जिसे भी खुदा माना ..वो फिर नज़र नहीं आया !!
ज़िन्दगी फिर तेरे वजूद पे यकीन आया ...