हैं बेसब्र मेरी रातें ...ये दिन बहुत बड़े हैं ...
मैं तो वहीँ खड़ा हूँ ..पर आप चल पड़े हैं ....
एक राह पे चले थे ..मंजिलें जुदा थी अपनी ...
ये वक़्त क्यूँ है ठहरा जो हम बिछड़ गए हैं ...
जो हर शाम गूंजते थे ... वो कहकहे थे अपने
क्यूँ खामोश हो गया मैं ये आप समझते हैं ....
एक वक़्त ऐसा भी था ... कि अपनी भी दास्तान थी ....
अब जो ढूंढा है फिर सहर को ...तो कुछ बिखरे लम्हे मिले हैं .......
लगता है कुछ तो अपनी .. अनबन है ख्वाइशों से
समझा था जिन्हें अपना .. वो औरों को हो चले हैं ....
अभी भी सुलगती हैं ..वो आरज़ू ... वो तमन्नाएं ...
ये कैसी हसरतें हैं ...ये कैसे सिलसिले हैं ....
मैं तो वहीँ खड़ा हूँ ..पर आप चल पड़े हैं ....
एक राह पे चले थे ..मंजिलें जुदा थी अपनी ...
ये वक़्त क्यूँ है ठहरा जो हम बिछड़ गए हैं ...
जो हर शाम गूंजते थे ... वो कहकहे थे अपने
क्यूँ खामोश हो गया मैं ये आप समझते हैं ....
एक वक़्त ऐसा भी था ... कि अपनी भी दास्तान थी ....
अब जो ढूंढा है फिर सहर को ...तो कुछ बिखरे लम्हे मिले हैं .......
लगता है कुछ तो अपनी .. अनबन है ख्वाइशों से
समझा था जिन्हें अपना .. वो औरों को हो चले हैं ....
अभी भी सुलगती हैं ..वो आरज़ू ... वो तमन्नाएं ...
ये कैसी हसरतें हैं ...ये कैसे सिलसिले हैं ....
kya baat hai :)
बहुत सुन्दर रचना ..
very nice....