वो पूछते हैं , अरे मुसाफिर चला कहाँ को?
क्या तेरी मंज़िल का पता तुझे है?....
कह दिया उनको,.... मैंने मुस्कुरा के.…
जहाँ पे मिलेगा … ये सूरज ज़मीं से
है बस मुझे भी ,… जाना वहीँ पे …
हर दिन मैं मंज़िल , … नयी ढूंढता हूँ
अब मेरा मज़हब आवारगी है।
कभी मैं गुज़रता हूँ जंगलों से। …
कभी मैं निकलता हूँ पर्वतों से.…
नदी , झरने , राहें … हैं मेरे साथी
हर मुश्किल मुझे , नया सबक सिखाती। …
सभी बंदिशों से , मैं बेखबर हूँ
आवारा परिंदों का , मैं हमसफ़र हूँ। .......
नहीं मेरा नाता मस्जिद , मंदिरो से.…
बस मेरा मज़हब आवारगी है !
सफर मैं मज़ा.. जब से आने लगा है
मेरा डर कहीं तो , ठिकाने लगा है.……
समेटा है जब से.. अपने हौसलों को
हर दर्द मुझसे खौफ खाने लगा है। ....
मजबूरियों से जब...बढ़ा ली है दूरी। ....
अब जो भी कमी है...मैं कर लूँगा पूरी।
मेरी आज़ादी ही... मेरी बंदगी है
हाँ मेरा मज़हब आवारगी है.…