खुली हवा सा बहता था... कैसे मैं बंध गया हूँ ?
मैं तो मुसाफिर था ... ये कहाँ ठहर गया हूँ ?
यूँ ही निकलता ...कभी रुकता कभी चलता
हर रोज़ मैं किसी ... नए मौसम से मिलता
कोई डोर नहीं थी ... बाँध लेती जो मुझे
कोई छोर नहीं था ... ना ढूंढूं में जिसे !
ये कैसा अँधेरा है .. जिसे देख थम गया हूँ ...
मैं तो मुसाफिर था ... ये कहाँ ठहर गया हूँ ?
सूरज की नर्म किरणें ... हौले से थपकती थीं
गुज़रती हुई हवाएं ... मेरे गले लगतीं थीं
ओस की बूंदों में ... मेरा अक्स दीखता था
हर राहबर मुझे... अपना कोई लगता था !
ये वक्त की है करवट ... या मैं बदल गया हूँ ?
मैं तो मुसाफिर था ... ये कहाँ ठहर गया हूँ ?
हर शाम ढूंढता था .... कोई नया बसेरा ...
कई हौसले देता था..... मुझको नया सवेरा
हर राह लगती है ... अब अजनबी सी मुझको
जिनसे कभी था मेरा ...सम्बन्ध बहुत गहरा ..
ठोकर लगी है मुझको ?.. या में फिसल गया हूँ ?
मैं तो मुसाफिर था ... ये कहाँ ठहर गया हूँ ?